Sunday 19 December 2010

नया प्रोडक्ट

'है किसी के पास कुछ नया आईडिया?', प्रोडक्ट मेनेजर ने अपनी डिजाईन टीम को तौलते हुए पूछा। 'पिछले सात सालों में कोई नया आईडिया तो आपने दिया नहीं, आज की मीटिंग में क्या नया हो सकता है?'
'सर, मेरा एक आईडिया है अपने टूथब्रुश लाइन के लिए, जो कि बिलकुल नया है, और आपको जरूर पसंद आएगा': सुधांशु जी बोले।
'कहिये'..मेनेजर साहब ने अविश्वास से उन्हें देखा।
'सर, सोचिये, एक ऐसा टूथब्रुश जिसमे पेस्ट भी साथ में हो। और जिभ्ही भी साथ में हो। फिर तो यह तीनो अलग अलग लेकर चलने कि कोई जरूरत नहीं। फिर प्रोडक्ट के नए लाइन बनाना कितना आसान? टूथ पेस्ट रेफिल्ल्स अलग से बेचेंगे, अलग अलग किस्म के, नीम, आंवला, मिंट वगैरह। बड़ा रिफिल पैक जो महीना भर चले। छोटा जो हफ्ता भर।

"वाह, आपने तो सचमुच काफी बढिया विचार दिया है? टॉप मैनेजमेंट को यह जरूर पसंद आएगा।" मेनेजर जोश में बोले। "आपलोग इसका कोई नाम सजेस्ट करें।" कहकर उन्होंने उम्मीद से बाकी टीम को देखा।

"आल इन वन ", "दन्त रक्षक" वगैरह नाम आने लगे।
तभी मेंरे बगल में बैठे चौबे जी बोले " सर, क्यों न हम इसे दातुन कहें?


सुधांशु जी अगले हफ्ते भर चौबे जी से रूठे रहे।

Tuesday 6 July 2010

ऑर्किड का फूल

आई पी एल देखते धन पुत्रों -पुत्रियों को
देखकर ऑर्किड के फूल याद आते हैं,
गमले में, सुन्दर तो बहुत,
पर हमेशा एक डंडी के सहारे।

बाप के पैसों की डंडी।

Friday 4 December 2009

रूपांतरण

पेड़ टिका रहता है जमीन पर,
जड़ें डाले,
प्यारी,उपजाऊ जमीन,
मेरे ढेर सारे बीजों को खिलाएगी मेरे अगल बगल।

जंगल हर पेड़ का सपना होता है।

एक बीज गिरता है गुलाबों के बाग़ में ,
और जिंदगी अभिशाप हो जाती है उसकी,
कोसता है अपने गुलाब न होने को,

गुलाब लहकते हैं, दहकते हैं,
चमकते कांटे, झूमती टहनियां,
और यह पौधा
अकेला
इन्तजार करता है अपने काँटों के निकलने का

ऊपर बढ़ते हुए, देखता है मन मसोसे ,
पीछे छूटते गुलाबों को,
छूटता रिश्ता, छूटती आशा, टूटे सपने,
विवश, कोसता है जिसने उसे लगातार बढ़ने का
श्राप दे दिया ।

और धीरे धीरे, ऊंची नजर देखती है,
थोड़ी दूर, भीर से उठे दूसरे पेड़ को,
थोड़ा भौंचक, थोड़ा चकित,
रुआंसा और फ़िर मुदित,
आह्लादित,
हवाओं में उड़ा देता है जन्म भर की ग्लानी को
रूपांतरण,
गुलाब के पौधे से आम के पेड़ में ।

Thursday 4 December 2008

bahut badhia!!! lage raho....

Wednesday 3 December 2008

सीरियल तीरने की कला

जब हमने अपना टीवी चैनल खोलने का विचार किया, तो सबसे पहले प्रोग्राम मेनेजर की कुरसी के लिए इश्तहार दिया। कई आवेदन पत्रों को छांटने के बाद श्री योगेन्द्र भंसाली को बुलाया इंटरव्यू के लिए।
मैं: प्रोग्राम मेनेजर बनने के लिए सबसे जरूरी कौन सा गुण है?
यो: यह समझना कि एक प्रोग्राम बनाना मछली पकड़ने की तैयारी से काफ़ी मिलता जुलता है
मैं: जरा विस्तार से बताने का कष्ट करेंगे?
यो: अजी काफ़ी सिंपल है। दर्शक आपके लिए मछली हैं, जो टीवी के सागर में हर दिन चैनलों के गिर्द तैरते रहते हैं। हर प्रोग्राम उन्हें पकड़ने का काँटा है। मछली फंस गई, इसका पता आपको टी आर पी (तड़प) रेटिंग से पता चलता है। काँटा डालने का काम तो आपका क्रिएटिव मेनेजर करता है, पर उसके बाद मछली को दिनों,हफ्तों,महीनो तक लटकाए रखने का काम प्रोग्राम मेनेजर का होता है।
मैं: हम्म , मुझे पहले से ही ऐसा लगता था। आपकी इस पूरे प्रकरण में किस विधा में योग्यता हासिल है?
यो: वैसे तो मैं अपनी बघारने में ज्यादा विश्वास नहीं रखता हूँ, पर वोह सीरियल याद है, 'कुछ तो हुआ है' ?
मैं: हाँ, वही सीरियल न, जिसमे शुरुआत मर्डर मिस्त्री से हुई थी ? पहले लोग काफ़ी देखते थे, पर तीन चार साल देखते रहने के बाद लोग जब सीरियल का नाम बदलने के बारे में सोचने लगे तभी जाकर कुछ हुआ। तब लोगों ने कहा 'कुछ हुआ तो है!'
यो: जी हाँ। अब आप यह बताइए के यह सीरियल कितने एपिसोड का था?
मैं: शायद हजार?
यो: आपको पता नहीं, पर पहले स्क्रिप्ट सिर्फ़ तेरह कड़ियों कि बनी थी । जब दर्शकों को जासूस जोड़ी पसंद आ गई और मर्डर से परदा उठने वाला था, तब मेरी बुलाहट हुई। प्रोड्यूसर सर पकड़ कर बैठा था। क्रिएटिव डिरेक्टर हाथ उठाकर बैठा था कि कहानी अच्छे मोड़ पर ख़तम कर अगले प्रोग्राम पर लगेगा। पर फंसी मछली को छोड़ना इतना आसान थोड़े ही है? अब आप सोचो, एक एपिसोड , गुनाहगार का डीएनए तक मैच हो चुका है। हीरो हिरोइन एक दूसरे को बधाई दे चुके हैं, और लास्ट एपिसोड में बस दोनों की शादी और गुनाहगार को सजा होनी है। यहाँ से कहानी उठाकर और हजार एपिसोड तक बढ़ाने का काम मैंने किया था।

Sunday 16 November 2008

छठ और सूर्य

आज हम तुम्हे पूजा कर रहे हैं, शाम का प्रणाम और सुबह की पूजा, उपवास और गीत। ठण्ड में एक दीपक की लौ पर ध्यान रख घाट में उतरी महिलायें, और भीड़ भरे घाट। इनमे से शायद ही कोई सोचता है तुम्हारे बारे में। अगर धरती हमारी माता है तो पिता तो तुम हो, फिर क्योँ यह उदासीनता ? शायद जो रवैया हम अपने पिता को जानने में रखते हैं, शायद वही यहाँ भी लागू होता है। नही तो ऐसा क्यों कि सारे ग्रन्थ और पुराण बड़े बड़े देवताओं की बात तो करते हैं, पर तुम्हारी कहानी शायद ही कहीं विस्तार से आती है। सात घोडों के रथ, अरुण और गरुड़ , हनुमान की बाल लीला और ऐसे ही चंद टुकड़े। बस यही परिचय है तुम्हारा, हमारे पिता का ?
मैं शुरूआत करता हूँ कुछ कठिन सवालों से। देखता हूँ उस रौशनी की नदी , आकाश गंगा को, और पूछता हूँ, क्यो यह रौशनी, महानगरीय चमक दमक तुम्हे खींच नही पायी? या, अपने अच्छे दिन वहां रौशनी में बिता, बाद में परिवार के साथ इतनी दूर अलग थलग आ गए ताकि बच्चे उस रौशनी से बचे रहें, सुरक्षित ? या फ़िर तुम कोई छोटे सितारे तो नही जो उस महानद के बड़े बुल्ली सितारों से कन्नी काट चुप चाप अपनी सीधी शांत जिंदगी बिताने इधर कोने में आ पड़े?
तुम शांत मुस्कुरा रहे हो, या ये मेरी खिल्ली उडाने वाली मुस्कान है? कहीं ऐसा तो नहीं की तुम वैसे अंग्रेजों की तरह हो, जो लन्दन की बहु नगरीय संस्कृति को छोड़, अपनी शाही कोठी में, गाँव में बैठे हो अपने परिवार के साथ, अपने गुरुत्व का अभिमान लेकर?
जवाब दो, तुम कौन हो ? ऐसे चुप मत बैठना जैसे एक वैज्ञानिक अपने सात साल के पुत्र की बात के जवाब में ' तुम नहीं समझोगे क्वांटम फिजिक्स ' वाली चुप मुस्कराहट फेंकता है! मैं जिद्दी बच्चा हूँ, क्या पता तुम्हारे अतीत को खोदना ही अपना लक्ष्य बना बैठूं? फ़िर बाद में यह मत कहना कि पूरी जिंदगी क्यों बरबाद की।

मुकेश के गीत

अभी कमरे में मुकेश की आवाज गूँज रही है ...'वक्त करता जो वफ़ा आप हमारे होते ॥' । काफी दिनों के बाद एक पुरानी डिस्क में कुछ पुराने गाने मिले, जो बजा रहा हूँ। मुकेश की आवाज मुझे हमेशा खींच कर बारहवीं के दिनों की ओर ले जाती है जब मुझे मुकेश को गौर से सुनने का मौका मिला था।
मुकेश के सबसे पहले फ़ैन मेरे चिंटू भगना थे। वैसे तो वे उम्र में मुझसे आठ दस साल बड़े होंगे लेकिन दीदी के बेटे होने के कारण भगना बोलने का हक मेरा था। आरा की वह रात मुझे अब भी याद है जब क्वार्टर की छत पर लेटकर हम दोनों रेडियो सुन रहे थे, मुकेश के गीत आ रहे थे और चिंटू जी काफी दुखी थे, उस दिन राज कपूर ने कहा था, मेरी आवाज चली गई ....
मुकेश के गाने मैं विनय भइया और भाभी से भी सुनता था बचपन के दिनों में। लेकिन इंटर में आने के बाद जब निशांत से मुकेश के गीत सुने तो दिल को छू गए। तब जा कर यह भी पता चला की सिवाय नाक से गाने के, सुर की पैठ और समझ भी मुकेश के गीतों को चाहने के लिए जरूरी है। यह वही उम्र थी जब अच्छे गानों के पीछे कैसेट दूकानों की खाक छानना अच्छा लगता था। निशांत के पास तो मुकेश के गानों का जैसे खजाना भरा था, ऐसे गाने जो शायद मैंने ढंग से कभी सुने भी नहीं, अब अच्छे लगने लगे।
अभी भी मुकेश के गीत फ़िर पुराने दिनों में ले जाते हैं। यहाँ लन्दन में बैठकर, ठण्ड के रात में, जब 'जिस गली में तेरा घर ...' बजना शुरू होता है, मैं फ़िर पहुँच जाता हूँ, उन्ही पुराने दिनों में, उम्र की चादर उड़ जाती है, और दिल फ़िर पच्चीस साल पीछे पहुँच जाता है, उन्ही पुरानी गलियों में, उन्ही पुरानी यादो में ।

मुकेश के कुछ गीत जो मेरे प्रिय हैं:
१। कई बार यूँ भी देखा है (रजनी गंधा)
२। जाने कहाँ गए वोह दिन ( मेरा नाम जोकर)
३। तुम अगर मुझको न चाहो ( याद नहीं, आप सहायता करें ...)
४। रात और दिन दिया जले
५। जिस गली में तेरा घर